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शनिवार, 4 फ़रवरी 2017

“हवाएँ”

हवाएँ नीरव सी फिज़ा में
निस्तब्ध पेड़ों की पत्तियों को
जब छू कर  गुजरती हैं तो
कानों में कुछ कहती हैं ।

हवाएँ जब बाँस के झुरमुटों से
गुजरती हैं तो बाँसुरी की
मादक  तान  बनकर
सांसों में महक भरती है ।

समुद्र  की गिरती -उठती
लहरों से करती हैं अठखेलियाँ
कभी जलतरंग सी बजती
कभी नाहक शोर करती हैं ।

जीर्ण भग्नावशेषों से गुजरती ये
तन में सिहरन भरती
ना जाने कितनी दास्तानों का जिक्र
अपनी उपस्थिति संग करती हैं ।

×××××

2 टिप्‍पणियां:

मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"