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गुरुवार, 17 मई 2018

"गुफ्तगू" (ताँका)

    ( 1 )
समय चक्र
कुछ पल ठहरे
तो मैं चुन लूं
स्मृतियों के  वो अंश
छूटे है यहीं कहीं
       ( 2 )
वक्त के साथ
निश दिन चलते
थका है मन
प्रतिस्पर्धी होड़ से
रूक कर सुस्ता लूं
     ( 3 )
मेरे अपने
तेरा हाथ पकड़
चलना चाहूं
एक नई डगर
बन के सहचर
     (4 ) 
गर खो जाए
दुनिया की भीड़ में
दीप यकीं का
प्रज्जवलित रखें
मन के आँगन में

     XXXXX

17 टिप्‍पणियां:

  1. विश्वास तो मन के आंगन में ही उपजा रहे तो बेहतर है।
    जरा मेरी सी सोच रख कर देखा मैंने
    समय तो रुका हुआ है
    भाग तो मैं रहा हूँ।
    छोड़ रहा हूँ कुछ को पीछे
    कुछ को आगे पकड़ रहा हूँ
    भूल गया हूँ कि समय तो रुक गया है
    भटक गया हूं तो मैं।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. कविता के माध्यम से दी गई‎ प्रतिक्रिया बहुत अनमोल है मेरे लिए . आपकी सुन्दर सी टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद.

      हटाएं
  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १८ मई २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर भाव, नई विधा में आपकी यह पकड़ अच्छी लगी।

    जवाब देंहटाएं
  4. इस विधा में आपकी अच्छी पकड़ है।
    सुन्दर रचना
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  5. सुन्दर सी सराहना हेतु हृदयतल से धन्यवाद आपका ।

    जवाब देंहटाएं
  6. वाह!!बहुत खूबसूरत भाव ..।

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत बहुत धन्यवाद शुभा जी ।

    जवाब देंहटाएं
  8. मैं चुन लूं
    स्मृतियों के वो अंश
    छूटे है यहीं कहीं
    हर पंक्ति अपने आप मैं सम्पूर्णन रोचकता के साथ लिखा आपने !!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आप की प्रतिक्रिया सदैव उत्साहवर्धन करती है संजय जी । हार्दिक धन्यवाद आपका ।

      हटाएं
  9. मन के आँगन में दीप सदा जलता रहे तो रास्ता स्वयं मिल
    जाता है ... सभी ताका लाजवाब ... स्पष्ट बात को रखते हुए ...

    जवाब देंहटाएं
  10. आप की प्रतिक्रिया सदैव उत्साहवर्धन करती है नासवा जी ।

    जवाब देंहटाएं

मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"