Followers

Copyright

Copyright © 2023 "मंथन"(https://www.shubhrvastravita.com) .All rights reserved.

शनिवार, 1 फ़रवरी 2020

"संदूक"

बहुत दिनों के बाद आज समय मिला है ..आलमारी
ठीक करने का । कितनी ही अनर्गल चीजें रख
देती हूँ इसमें और फिर साफ करते करते सलीके से  ना
जाने कितना समय लग जाता है । कितनी स्मृतियाँ
जुड़ी होती है हर चीज के साथ ..और मन है कि डूबता
चला जाता है उन गलियारों में और जब काम
पूरा होता है तो सूर्यदेव अस्ताचलगामी हो
जाते हैं । ऐसे समय में  अक्सर बचपन का
घर और माँ का करीने से जँचा कमरा
घूम जाता है नज़रों के आगे । इस आकर्षण का कारण
माँ के सलीकेदार होने की प्रंशसा का होना मुख्य है जो घर
के सदस्यों के अतिरिक्त रिश्तेदारों से भी सुनने को
मिलती थी । माँ के कमरे में दीवारों में बनी
आलमारियों में एक आलमारी पर सदा ताला
लगा देखती थी हमेशा और उसकी चाबी का
गुच्छा माँ की साड़ी के छोर से बंधा हुआ…,
अगर पल्लू के छोर पर नहीं तो
पक्का रसोईघर के सामान के बीच रखा ,जिसे वे
प्रायः भूल जाया करती थीं काम करते हुए । और
उसे ढूंढने का श्रेय मेरे हिस्से में सबसे अधिक आता
था । माँ जब भी आलमारी खोलती सूटकेसों के साथ
करीने से रखी पुरानी बेडशीट पर लोहे की प्रिटेंड
संदूक को जरूर अपलक निहारती दिखती और मैं उनके
गले में हाथ डाल कर झूलती हुई पूछती --'तुम्हारी
तिजोरी है माँ ?'  स्नेह में डूबा लरजती आवाज में
उनका जवाब होता -- हाँ.. तेरी नानी की भेंट है यह ।
और मैं उलझा देती उन्हें बहुत सारे प्रश्नों में..जिनकी
उलझन से बचने के लिए वे सदा ही मुझे-- जा
पढ़ाई कर.. कह कर चुप करा देती ।
  अपने घर में जब भी फुर्सत से आलमारियां ठीक
करती हूँ ...माँ की आलमारी और प्रिटेंड सा
संदूक याद आ जाता है ।
माँ का संदूक को सावधानी से रखना , करीने से
खोलना ,  कपडों की तहों में चिट्ठियाँ रखना ...कुछ
ननिहाल से मिली भेंटों को अपलक तांकना ; बालमन
को तो समझ नहीं आता था पर अब समझ आता
है ।  संदूक का छोर पकड़ती माँ मानो हाथ
पकड़ती थी अपनी माँ का .., उसमें रखे सामान को
सहेजती माँ का बालमन भी अपने बचपन के
गलियारों में विचरण करता था । उनके एकान्तिक
अहसासों की एकाग्रता को भंग करती कभी मैं  तो
कभी भाई -बहन उनको उनके बचपन से बड़प्पन के
संसार में ले आया करते थे--- "तुम 'लाइट हाउस' हो
हमारा … कहाँ जा रही हो माँ?" आज माँ
नहीं हैं.. मैं आलमारी ठीक करते करते मन से
माँ की तरह भटक रही हूँ यादों की उन विथियों
में … जहाँ माँ का संदूक  है ..और अब है भी या
नहीं पता नही...जिसमें ना जाने कितने अनकहे
अहसास बंद थे माँ के करीने से सजाये हुए .. उन्हीं
को याद करती मैं वापस लौट आती हूँ अपनी
आलमारी में बिखरे यादों के संदूक के पास ।

 ★★★★★

22 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर संस्मरणात्मक सृजन दी।
    आपकी ऐसी रचनाएँ पढ़ने को सदा उत्सुक रहती हूँ, एक भावात्मक प्रवाह महसूस होता है।
    सादर।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. स्नेह और आत्मीयता से परिपूर्ण प्रतिक्रिया के लिए स्नेहिल आभार श्वेता :)

      हटाएं
  2. अहसास इतने साक्षात हैं, मानो चित्र पटल पर कोई अपनी कहानी देखता हो,
    सच अंदर तक सहलाती सुंदर ख्वाब ही आपकी ये संदूक अभूतपूर्व हैं।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपकी इतनी सुन्दर और सराहनीय प्रतिक्रिया से लेखनी सफल हुई कुसुम जी ! हृदयतल से आभार ।

      हटाएं
  3. बहुत सुन्दर, अहसासों को व्यक्त करती रचना

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. उत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार उर्मिला सिंह जी ।

      हटाएं
  4. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (03-02-2020) को 'सूरज कितना घबराया है' (चर्चा अंक - 3600) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    *****
    रवीन्द्र सिंह यादव



    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीय मेरे सृजन को चर्चा मंच की चर्चा में सम्मिलित करने हेतु ।

      हटाएं
  5. माँ की यादों के साथ बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण संस्मरणात्मक सृजन....।
    वाह!!!!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहुत बहुत आभार सुधा जी !आपकी अनमोल प्रतिक्रिया से सृजन को सार्थकता मिली ।

      हटाएं
  6. यादों का खूबसूरत अहसास, पढ़ते समय मन में वही दृश्य घूमने लगा। बेहद हृदयस्पर्शी प्रस्तुति सखी।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सुन्दर सराहनीय प्रतिक्रिया से सृजन को सार्थकता मिली .. बहुत आभार सखी !

      हटाएं
  7. संदूक का छोर पकड़ती माँ मानो हाथ
    पकड़ती थी अपनी माँ का .., उसमें रखे सामान को
    सहेजती माँ का बालमन भी अपने बचपन के
    गलियारों में विचरण करता था
    हृदयस्पर्शी मीना जी,एक बेटी से माँ तक के सफर में कितनी अनमोल संस्मरण जुड़ें होते हैं जो वक़्त बे वक़्त आकर यादों की खिड़की खटखटा जाते हैं।
    अक्सर ऐसा लगता हैं अतीत खुद को दोहरा रहा हैं जो कल माँ के लिए अतीत था आज हमारा वर्तमान हो जाता हैं। इस अनमोल सृजन के पशंसा के लिए शब्द नहीं हैं मेरे पास ,सादर नमन आपको

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सृजन का मर्म स्पष्ट करती आपकी अनमोल सारगर्भित व्याख्या से सृजन का मान बढ़ा कामिनी जी । हृदयतल से आभार उत्साहवर्धन हेतु । सस्नेह वन्दे ।

      हटाएं
  8. सुंदर अहसासों से सजी रचना 👌👌माँ का संदूक उसके साथ जुडी भावनाएँ बहुत खूबसूरती के साथ अभिव्यक्त की हैं आपने प्रिय सखी ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहुत बहुत आभार प्रिय शुभा जी । आपकी अनमोल प्रतिक्रिया से लेखन को सार्थकता मिली ।

      हटाएं
  9. निशब्द हूँ प्रिय मीना जी ! यूँ तो ये दुनिया रैनबसेरा ! पर रोमांच भरे उस बचपन में वो गंभीरता कहाँ थी | लगता था समय कभी नहीं बदलेगा | सब यही कुछ रहेगा -- सदा सर्वदा | पर सब कहाँ एक जैसा रहता है | यादों के संदूक वही रहते हैं पर उनकों सँभालने वाली माँ - बेटियां बदलती रहती हैं | अत्यंत भाव विहल करने वाली शैली और सार्थक संस्मरणात्मक कथा |

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सही कहा आपने...यादों का संदूक एक जैसा ही रहता है..बस वक्त के साथ माँ-बेटियां ही बदलती हैं । सृजन को मान देती आपकी प्रतिक्रिया बहुत अनमोल है मेरे लिए । सस्नेह...

      हटाएं
  10. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (20-3-22) को "सैकत तीर शिकारा बांधूं"'(चर्चा अंक-4374)पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. विशेष प्रस्तुति में मेरी रचनाओं का चयन हर्ष और गर्व का विषय है मेरे लिए.., बहुत बहुत आभार कामिनी जी!

      हटाएं

मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"