Followers

Copyright

Copyright © 2023 "मंथन"(https://www.shubhrvastravita.com) .All rights reserved.

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2020

"सांध्यगीत"

                    

धीरे धीरे सांझ उतरी ,

जीवन में गोधूलि बेला ।

रीत जगत की चली आई  ,

जीना चार दिन का खेला ।।


हाथों में हैं नवल पाटल ,

दृग संजोते नई आशा ।

गा के सांध्य गीत कोई ,

भरे मन में नव प्रत्याशा ।।


कौन है  ऐसा जगत में ,

जिसने ना एकांत झेला ।

रीत जगत की चली आ रही ,

जीना चार दिन का खेला ।।


आ रही सागर से लहरें ,

बन के तेरी संगी  साथी ।

करती तन्द्रा भंग तेरी ,

वापस किनारे लौट जाती ।।


तेरे दुख सुख की ये साझी ,

क्यों समझे खुद को अकेला ।

रीत जगत की चली आ रही ,

जीना चार दिन का खेला ।।


जल उठे ये प्रकाश स्तंभ ,

अब क्या  बैठा सोचता है ।

भरा पूरा उपवन सा घर ,

वो तेरी बाट जोहता है ।।


देख विहग घर लौटते हैं ,

कल होगा फिर से सवेरा ।।

रीत जग की चली आ रही ,

जीना चार दिन का खेला ।।


🍁🍁🍁


28 टिप्‍पणियां:

  1. कौन है ऐसा जगत में ,
    जिसने ना एकांत झेला ।
    रीत जगत की चली आ रही ,
    जीना चार दिन का खेला ।।


    सुन्दर एवं सटीक सृजन......

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर सकारात्मक लेखन
    अच्छा लगा

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपको अच्छा लगा..लेखन सफल हुआ । हार्दिक आभार दी! सादर...

      हटाएं
  3. यही कारण है कि हमारे संस्कृति में जगत को लीला कहा गया है और जीवन सच में चार दिनों का खेला ही है । अति सुन्दर कथ्य ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपकी प्रतिक्रिया सदैव लेखन के प्रति रूझान बढ़ाती है । हृदय से असीम आभार अमृता जी ।

      हटाएं
  4. जीवन संदर्भ को रेखांकित करती सशक्त कृति..

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सराहना भरी प्रतिक्रिया के लिए आभारी हूँ जिज्ञासा जी ।

      हटाएं
  5. मीना जा हेशा की तरह इस बार भी उम्दा रचना पढ़वाने के ल‍िए धन्यवाद...क्या खूब ल‍िखा है ...जल उठे ये प्रकाश स्तंभ ,

    अब क्या बैठा सोचता है ।

    भरा पूरा उपवन सा घर ,

    वो तेरी बाट जोहता है ।।

    ...वाह

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपकी स्नेहभरी ऊर्जावान प्रतिक्रिया के लिए आभार अलकनंदा जी!

      हटाएं
  6. रीत जग की चली आ रही
    जीना चार दिन का खेला,
    एकदम यथार्थ पूर्ण रचना
    बहुत अच्छा लगा

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपकी सराहना सम्पन्न ऊर्जावान प्रतिक्रिया के लिए हृदय से असीम आभार भारती जी!

      हटाएं
  7. कौन है ऐसा जगत में ,
    जिसने ना एकांत झेला ।
    रीत जगत की चली आ रही ,
    जीना चार दिन का खेला ।।

    जीवन के यथार्थ को कविता में बड़ी ख़ूबसूरती से पिरोया है आपने...
    साधुवाद मीना जी 🙏❤️🙏

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपकी सराहना सम्पन्न ऊर्जावान प्रतिक्रिया के लिए हृदय से असीम आभार वर्षा जी 🙏❤️🙏

      हटाएं
  8. तेरे दुख सुख की ये साझी ,
    क्यों समझे खुद को अकेला ।
    रीत जगत की चली आ रही ,
    जीना चार दिन का खेला ।।

    चिंतन की गहराई तक दर्शाती बहुत सुंदर रचना...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सृजन को सार्थकता प्रदान करती सराहना सम्पन्न ऊर्जावान प्रतिक्रिया के लिए हृदय से असीम आभार शरद जी 🙏

      हटाएं
  9. बहुत ही सुंदर सृजन प्रिय मीना दी।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सृजन को सार्थकता प्रदान करती सराहना सम्पन्न ऊर्जावान प्रतिक्रिया के लिए हृदय से असीम आभार प्रिय अनीता ।

      हटाएं
  10. जल उठे ये प्रकाश स्तंभ ,

    अब क्या बैठा सोचता है ।

    भरा पूरा उपवन सा घर ,

    वो तेरी बाट जोहता है ।। सुन्दर सृजन।

    जवाब देंहटाएं
  11. उत्साहवर्धन करती सराहनीय प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार सर .

    जवाब देंहटाएं
  12. चार दिवस के जीवन में भी विभिन्न रँग होते हैं ... और ऐसे ही कुछ नवरँग का संकलन है ये रचना ... बहुत सुन्दर भावपूर्ण ...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. उत्साहवर्धन हेतु सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार नासवा जी .

      हटाएं
  13. हाथों में हैं नवल पाटल ,

    दृग संजोते नई आशा ।

    गा के सांध्य गीत कोई ,

    भरे मन में नव प्रत्याशा ।।

    "जीना चार दिन का खेला"ही तो है लकिन उन्ही चार दिनों को नई उत्साह और ऊर्जा के साथ जीना ही असली जीवन है,
    सुंदर,मनभावन सृजन मीना जी

    जवाब देंहटाएं
  14. सृजन को सार्थकता प्रदान करती सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया लिए हृदय से असीम आभार प्रिय कामिनी जी ।

    जवाब देंहटाएं

मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"