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शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

"डोर"

तेरे से बंधी मन की डोर
कई बार मुझे
तेरी ओर खींचती है

जी चाहता है
तेरी गलियों के फेरे लगाऊँ
जाने-पहचाने चेहरे देख मुस्कराऊँ

जो अपने थे रणछोड़ हो गए
तेरे गली-कूंचे कुछ और थे
अब कुछ और हो गए

हवाएँ बदली , राहें अजनबी सी हैं
तेरा बेगानापन मेरा सुकून छीन लेता है
तुझसे बँधा थागा , मन पुनः अपनी ओर खींच लेता है .

               ×××××

7 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 25 सितम्बर 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. हार्दिक आभार विरम सिंह जी .

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  3. जी चाहता है
    तेरी गलियों के फेरे लगाऊँ
    जाने-पहचाने चेहरे देख मुस्कराऊँ
    गजब के जज्‍बात। बेहतरीन... बेमिसाल.... लाजवाब....

    जवाब देंहटाएं
  4. रचना सराहना के लिए‎ हृदयतल से धन्यवाद संजय जी .

    जवाब देंहटाएं

मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"