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शुक्रवार, 8 जून 2018

" सांझा - चूल्हा"

सब को लेकर साथ चलना
सब के मन की बात पढ़ना
आसान नहीं कठिन सा है ।
बेसब्री और केवल मेरी 'मैं’
औरों के सिर पर पांव रख कर
केवल अपना भला सोचती है ।
कभी - कभी सोचती हूं
जगह -जगह सांझा - चूल्हा
रेस्टोरेंट्स तो खुल गये हैं ।
कहीं सांझा -चूल्हा संकल्पना भी बाकी है
जहां रोटियों के साथ नोंक झोंक
और स्नेह - प्यार भी पकता है ।
सांझे - चूल्हे में रोटियां सेंकने को
इन्तजार करना पड़ता है
अपनी अपनी बारी का ।
गावों की मेहनत कश
औरतें निबाहती है फर्ज
अपनी साझेदारी का ।
सह अस्तित्व का भाव
हो तो सब काम
अपने आप सधते हैं ।
और एक दूसरे के
सुख-दुख  आपस में
मिल जुल कर बंटते हैं ।

    XXXXX



6 टिप्‍पणियां:

  1. आपसी मेलजोल की अनुभूतियों का सुंदर शब्दांकन
    अंगना में चूल्हे की संख्या एक तो नि:संकोच आप कह सकते है कि पूरे परिवार के दिल एक साथ बंधे हैं
    पर सांझे - चूल्हे में रोटियां सेंकने को
    इन्तजार ऐसे जज़्बातों के साथ जोड़कर उनका बड़ी खूबसूरती से वर्णन किया है। पढ़कर ऐसा लग रहा था जैसे आँखों के सामने कोई चलचित्र सा चल रहा हो ....वाकई बहुत खूब लिखा है आपने!!

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    उत्तर
    1. आभार संजय जी !! जितनी बार कहूं कम होगा । शब्दों का अभाव महसूस होता है आपकी तारीफ करने के लिए । आपकी नियमित प्रतिक्रियाएं मेरे लेखन के लिए रुझान के मनोबल को बनाए रखती हैं।

      हटाएं
  2. आज रो ये बस एक किताबी बात या होटेल का नाम बन के रह गया है... असल मक़सद ख़त्म हो गया है ... आपसी प्रेम, बाँट में खाने का सुख ... दर्द बाँटने की कला ... कहीं नहि है ...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपकी हौसला अफजाई से लेखन कार्य हेतु मनोबल बढ़ता है , तहेदिल से धन्यवाद नासवा जी ।

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  3. मीना जी, सांझा चूल्हा बात तो बहुत अच्छी हैं। लेकिन यदि आपस में प्यार हो तब तक ही। यदि सिर्फ दिखावे की बात हो तो इससे अच्छा की चूल्हे अलग हो जाए। सुंदर प्रस्तूति।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. दूरदर्शन पर "सांझा-चूल्हा" सीरियल आता था जिसमें पंजाब की सांस्कृतिक विरासत मेंं गांव के दैनिक जीवन-शैली में "सांझा-चूल्हा" का अहम स्थान था । बस वही याद था लिखते समय । आप की विश्लेषणात्मक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार ज्योति जी ।

      हटाएं

मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"