करती समृद्धि का उद्घोष
संस्कृति की पोषक
मानवता की रक्षक
धारा ……, जब
मन्थर हो कर बहती है 
नई राहें खोजती
ध्वंसावशेष छोड़ती
गर्व के मद में चूर
हो विवेक शून्य दौड़ती 
धारा ….., जब
उन्मुक्त गति से बहती है
मन मानव का.., जीये चाहे वैसा
जीवन है अपना....,धारा के जैसा
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बहुत सुंदर प्रस्तुति मीना जी¡
जवाब देंहटाएंधारा और मानव जीवन वाह उम्दा।
आपकी ऊर्जावान प्रतिक्रिया से रचना को सार्थकता मिली कुसुम जी ! हार्दिक आभार ।
हटाएंहर धरा संचार करती है बहा ले जाती है जल तो कभी मन के भाव तो कभी प्रगति की राह की और ... सतत चलने का नाम ही धरा है ... सुन्दर रचना ...
जवाब देंहटाएंरचना को सार्थकता प्रदान करती उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए सादर आभार नासवा जी ।
हटाएंसुंदर.... रचना मीना जी ,सादर
जवाब देंहटाएंआपकी सुन्दर सी प्रतिक्रिया के लिए सादर आभार कामिनी जी ।
हटाएंवाह! जीवन के दर्शन का सच।
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया के लिए हृदयतल से आभार विश्वमोहन जी ।
हटाएंसुन्दर रचना....
जवाब देंहटाएंतहेदिल से आभार विकास जी ।
हटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर.... लाजवाब...।
हृदयतल से आभार सुधा जी ।
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