Followers

Copyright

Copyright © 2023 "मंथन"(https://www.shubhrvastravita.com) .All rights reserved.

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2020

"मन"

                          

सांझ की...

दहलीज़ पर

कभी हाँ…

तो कभी ना में

 उलझा …

घड़ी के पेंडुलम सा

स्थिरता..

की चाह में झूलता

स्थितप्रज्ञ मन…


हक के साथ

बोनस में

जो मिल रहा है

उसकी..

चाह तो नहीं रखता

वैसे ही…

मन बेचारा

निर्लिप्त जीव है

तुम्हारी सौगातें

जो भी है...

सब की सब

सिर आँखों पर..


यहाँ..

सारा का सारा

आसमान...

कब और किसको 

मिला है..

यह मन ही 

पागल है...

मिठास की चाह भी 

रखता है..

और वह भी

 खारी सांभर से...


***

【चित्र~गूगल से साभार】


36 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. उत्साहवर्धन करती सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार सर .

      हटाएं
  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 5 दिसंबर 2020 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद! ,

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपका इस मान के लिए हार्दिक आभार श्वेता ।

      हटाएं
  3. कभी तो उसके दिल में भी चाहत जागेगी !

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपकी प्रतिक्रिया सदैव की तरह लाजवाब करती हुई... बहुत बहुत आभार सर 🙏 आपकी उपस्थिति हमेशा उत्साहवर्धन करती है 🙏

      हटाएं
  4. उत्तर
    1. उत्साहवर्धन करती सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार शिवम् जी.

      हटाएं

  5. जय मां हाटेशवरी.......

    आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
    आप की इस रचना का लिंक भी......
    06/12/2020 रविवार को......
    पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
    शामिल किया गया है.....
    आप भी इस हलचल में. .....
    सादर आमंत्रित है......


    अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
    https://www.halchalwith5links.blogspot.com
    धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. पाँच लिंकों का आनन्द में रचना साझा करने हेतु सादर आभार कुलदीप जी।

      हटाएं
  6. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (06-12-2020) को   "उलूक बेवकूफ नहीं है"   (चर्चा अंक- 3907)    पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --   
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. रचना को चर्चा मंच की प्रस्तुति में सम्मिलित करने हेतु सादर आभार सर ।

      हटाएं
  7. उत्साहवर्धन करती सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार सर .

    जवाब देंहटाएं
  8. उत्तर
    1. उत्साहवर्धन करती सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार आ.आलोक जी.

      हटाएं
  9. सांझ की...

    दहलीज़ पर

    कभी हाँ…

    तो कभी ना में

    उलझा …

    घड़ी के पेंडुलम सा

    स्थिरता..

    की चाह में झूलता

    स्थितप्रज्ञ मन… प्रभावशाली रचना - - परिपूर्णता बिखेरता हुआ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सारगर्भित और सराहनीय प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार आ.शांतनु जी ।

      हटाएं
  10. यहाँ..

    सारा का सारा

    आसमान...

    कब और किसको

    मिला है..

    यह मन ही

    पागल है.
    बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, मीना दी।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार ज्योति जी ।

      हटाएं
  11. उत्तर
    1. सराहना भरी प्रतिक्रिया से सृजन को सार्थकता मिली । हार्दिक आभार यशवन्त जी.

      हटाएं
  12. सांभर की बात खूब कही आपने ! : )
    अलग अलग स्वाद हैं ज़िन्दगी के!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. रचना के भाव आपके मन तक पहुंचे..लेखन सफल हुआ.
      हार्दिक आभार नूपुरं जी!

      हटाएं
  13. मेरे ब्लॉग ग़ज़लयात्रा पर आपका स्वागत है -

    http://ghazalyatra.blogspot.com/2020/12/blog-post.html?m=1

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी अवश्य वर्षा जी ! ग़ज़लयात्रा पर उपस्थिति अवश्य होगी।

      हटाएं
  14. सारा का सारा संसार तो वाकई किसी को नहीं मिलता। मन पागल है। बहुत बढ़िया। सादर।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपकी अनमोल सारगर्भित प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार विरेन्द्र सिंह जी ।

      हटाएं
  15. उत्तर
    1. लेखनी को सार्थकता मिली अमृता जी बहुत बहुत आभार.

      हटाएं
  16. मन की बातें मन ही जानता है ...
    पर जरूरी है मन की बात सुनना और जीना ...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सारगर्भित प्रतिक्रिया से सृजन को सार्थकता मिली.. बहुत बहुत आभार नासवा जी!

      हटाएं
  17. यहाँ..

    सारा का सारा

    आसमान...

    कब और किसको

    मिला है..

    यह मन ही

    पागल है...

    मिठास की चाह भी

    रखता है..

    और वह भी

    खारी सांभर से...

    बहुत खूब,मन तो पगल ही है,लाजबाब सृजन मीना जी,सादर नमन आपको

    जवाब देंहटाएं
  18. आपकी उपस्थिति से लेखनी को सार्थकता मिली कामिनी जी बहुत बहुत आभार. सस्नेह...,

    जवाब देंहटाएं
  19. मिठास की चाह भी
    रखता है..
    और वह भी
    खारी सांभर से...
    .....बहुत खूब

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहुत बहुत आभार संजय भाई ! आपकी सराहना भरी प्रतिक्रिया से लेखन को सार्थकता मिली ।

      हटाएं

मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"