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शुक्रवार, 9 जून 2017

“एक अकेला”

सुबह की भागम-भाग के बाद
उसका पूरा दिन अकेले घर में
कभी इधर तो कभी उधर
बेमतलब की उठा-पटक में कटता है ।

ईंट-पत्थरों की ऊँची सी शाख पे
अटका उसका घर देखने में
बैंया का घोंसला सा लगता है
उसकी ताका-झाकी देख लगता है
उसका भी  भीड़‎ में आने को जी करता है ।

जमीन पर रखना चाहता है कदम
मगर ना जाने क्यों झिझकता है
हो गया है अकेलेपन का आदी
अब बस्तियों से डरता है ।

 XXXXX

2 टिप्‍पणियां:

  1. ऐसा कमाल का लिखा है आपने कि पढ़ते समय एक बार भी ले बाधित नहीं हुआ और भाव तो सीधे मन तक पहुंचे !!

    जवाब देंहटाएं
  2. संजय जी उत्साह‎वर्धन करती आपकी प्रतिक्रिया‎ के लिए हार्दिक आभार .

    जवाब देंहटाएं

मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"